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छिंदवाड़ा कफ सिरप कांड : व्यवस्था की चूक और जीवन की कीमत

*इन परिवारों के दर्द ने पूरे प्रदेश को भावुक कर दिया* 


मध्य प्रदेश के शांत और हरित जिले छिंदवाड़ा में अक्टूबर में एक ऐसी घटना घटी जिसने पूरे देश की आत्मा को झकझोर दिया। बच्चों के लिए दिए जाने वाले एक साधारण से कफ सिरप की खुराक जिसे राहत देना था, वही मौत का कारण बन गया। दर्जनों परिवारों ने अपने मासूम बच्चों को इस जहरीले सिरप की वजह से खो दिया। जो बोतल दवा की दुकान से खरीदी गई थी वह दरअसल ज़हर का प्याला निकली।

छिंदवाड़ा की इस घटना ने न केवल स्थानीय प्रशासन,बल्कि देशभर के औषध नियंत्रण और स्वास्थ्य तंत्र की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिह्न लगा दिया। आखिर क्यों भारत जैसे देश में जो दुनिया के सबसे बड़े दवा निर्यातकों में गिना जाता है इतनी गंभीर लापरवाही संभव हुई?

यह सब शुरू हुआ जब छिंदवाड़ा और उसके आसपास के इलाकों पांढुर्णा, बैतूल,परासिया आदि जगहों में कई बच्चों के अचानक बीमार पड़ने और मौत की खबरें आने लगीं। शुरुआत में इसे सामान्य संक्रमण या वायरल का मामला माना गया। लेकिन जब अस्पतालों में दर्जनों बच्चों में समान लक्षण दिखाई देने लगे उल्टियाँ, बेहोशी, गुर्दे फेल होना तब डॉक्टरों को शक हुआ कि कहीं दवा में गड़बड़ी तो नहीं।

सभी मामलों में एक समानता थी बच्चों को “कफ सिरप” की खुराक दी गई थी। नाम सामने आया “कोल्ड्रिफ” (Coldrif) नामक सिरप का जो कथित रूप से एक स्थानीय फार्मास्यूटिकल कंपनी द्वारा बनाया गया था। स्वास्थ्य विभाग ने जांच कराई और जो तथ्य सामने आए वे भयावह थे। सिरप में डायथिलीन ग्लाइकोल (DEG) और एथिलीन ग्लाइकोल (EG) जैसे रासायनिक तत्व पाए गए जो जहरीले होते हैं और शरीर में जाने पर किडनी और लिवर को नष्ट कर देते हैं।

जांच बढ़ी नमूने भेजे गए और पुष्टि हुई कि यह विषाक्त कफ सिरप ही इन मौतों की मुख्य वजह था। मीडिया में यह खबर फैलते ही प्रदेश और देशभर में हड़कंप मच गया।

छिंदवाड़ा जिले के एक छोटे से गाँव में रेखा नाम की महिला अपने चार साल के बेटे की तस्वीर पकड़े बैठी थी। उसकी आँखों में अब भी यह सवाल था “क्या मेरे बेटे की गलती बस इतनी थी कि उसने खाँसी की दवा पी ली?”

एक पिता जो स्थानीय स्कूल शिक्षक हैं बताते हैं “डॉक्टर ने वही सिरप लिखा था जो सब दे रहे थे। हमने दो खुराक दीं तीसरी के बाद बच्चा बेहोश हो गया। फिर कभी नहीं उठा।”

इन परिवारों के दर्द ने पूरे प्रदेश को भावुक कर दिया। 

अस्पतालों में माताओं की चीखें और प्रशासनिक अफसरों के आश्वासन दोनों साथ दिखाई दे रहे थे। जनता के बीच गुस्सा और अविश्वास फैल गया। दवा दुकानों पर सिरप खरीदने वालों में भय का माहौल बन गया।

इस त्रासदी ने भारतीय औषध निर्माण प्रणाली की गहरी खामियों को उजागर कर दिया। छिंदवाड़ा जैसी घटनाएँ दिखाती हैं कि भारत में दवा निर्माण की निगरानी व्यवस्था अभी भी बिखरी हुई है।

देश में लगभग 3,000 से अधिक दवा निर्माण इकाइयाँ हैं लेकिन इनकी निगरानी करने वाले ड्रग इंस्पेक्टरों की संख्या बेहद कम है। कई राज्यों में एक-एक इंस्पेक्टर सैकड़ों कंपनियों की देखरेख करते हैं। 

परिणाम निरीक्षण सतही रह जाते हैं लैब परीक्षणों में देरी होती है और बाज़ार में पहुँचने से पहले दवाओं की विषाक्तता जाँची नहीं जाती।

छिंदवाड़ा कांड में सबसे गंभीर गलती यह थी कि DEG/Ethylene Glycol परीक्षण को अनिवार्य परीक्षण सूची में शामिल नहीं किया गया था। यह वही गलती है जो इससे पहले 2022 में गांबिया और उज्बेकिस्तान में भारतीय सिरप निर्यात के मामलों में भी सामने आई थी।

इस कफ सिरप कांड ने भारत की औषध नियंत्रण व्यवस्था को कटघरे में खड़ा कर दिया है। बच्चों की मौतों से उपजी इस त्रासदी ने यह स्पष्ट कर दिया कि दवा निर्माण में लापरवाही केवल तकनीकी गलती नहीं बल्कि मानवीय संवेदनहीनता का प्रतीक है।

छिंदवाड़ा की यह त्रासदी सिर्फ कुछ परिवारों की व्यक्तिगत पीड़ा नहीं है यह पूरे देश की सामूहिक चेतना के लिए एक दर्पण है। यह हमें याद दिलाती है कि विकास की दौड़ में यदि हम “सुरक्षा और मानवीय संवेदनशीलता” खो दें, तो प्रगति का कोई अर्थ नहीं बचता। जो सिरप बच्चों को राहत देने के लिए था वही उनकी जान लेने वाला बन गया। यह सिर्फ एक रासायनिक गलती नहीं बल्कि नैतिक पतन का संकेत है।

अब यह समय है कि सरकार, औषधि उद्योग और समाज तीनों इस सबक को गंभीरता से लें।

दवा को फिर से “जीवन का प्रतीक” बनाया जाए, “मौत का माध्यम” नहीं।

देखा जाए तो छिंदवाड़ा कफ सिरप कांड कोई “एक दुर्घटना” नहीं है बल्कि उस तंत्र की परतें खोलता है जो लंबे समय से अनदेखी और सुस्ती का शिकार रहा है।

भविष्य में भारत को दवा सुरक्षा के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप कठोर कानून और दंड व्यवस्था लागू करनी होगी। जनस्वास्थ्य की रक्षा केवल घोषणाओं से नहीं व्यवस्था की ईमानदारी से होती है।

घटना के बाद जब कंपनी मालिक को अदालत में पेश किया गया तो बाहर खड़ी जनता “फांसी दो” के नारे लगा रही थी। यह केवल गुस्से का प्रदर्शन नहीं था बल्कि वर्षों से स्वास्थ्य व्यवस्था में जमा अविश्वास का विस्फोट था।

मीडिया में इस कांड को “छिंदवाड़ा की त्रासदी” नाम दिया गया पर वास्तव में यह पूरे देश के लिए एक चेतावनी थी। स्वास्थ्य एक बुनियादी अधिकार है और जब वही दवा मौत का कारण बने तो व्यवस्था की आत्मा घायल होती है।

यह घटना नीति-निर्माण स्तर पर गहरे असर छोड़ गई। केंद्र सरकार ने तत्काल सभी राज्यों को निर्देश दिया कि सिरप सहित सभी लिक्विड दवाओं में अब DEG/EG की जांच अनिवार्य होगी।

लेकिन यह सवाल अभी भी कायम है क्या हर बार ऐसी त्रासदी के बाद ही नीति बदलेगी? क्यों नहीं पहले से यह तंत्र सक्रिय रहता?

भारतीय औषधि नियामक प्रणाली में संरचनात्मक सुधार की ज़रूरत है। सेंट्रल ड्रग्स स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन (CDSCO) और राज्य स्तरीय ड्रग कंट्रोल डिपार्टमेंट्स के बीच समन्वय की कमी इस घटना में स्पष्ट दिखी।

दूसरी बड़ी समस्या यह है कि छोटे और मध्यम स्तर की दवा कंपनियाँ अक्सर “कॉन्ट्रैक्ट मैन्युफैक्चरिंग” के नाम पर सस्ते रसायनों का उपयोग करती हैं। ऐसे में निगरानी की पारदर्शी प्रणाली का होना अत्यावश्यक है।

छिंदवाड़ा कांड के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने भारत में निर्मित कफ सिरप को लेकर पुनः चेतावनी जारी की। संगठन ने कहा कि DEG और EG जैसे रसायन, जो औद्योगिक सॉल्वेंट्स हैं, यदि गलती से दवा निर्माण में उपयोग हो जाएँ, तो यह घातक विष साबित हो सकते हैं।

WHO की यह चिंता नई नहीं थी। पिछले दो वर्षों में ऐसे ही दूषित सिरप के कारण अफ्रीका और एशिया के कई देशों में बच्चों की मौतें हो चुकी हैं।

छिंदवाड़ा की घटना ने यह स्पष्ट किया कि भारत को अपने फार्मा निर्यात की प्रतिष्ठा बचाने के लिए दवा सुरक्षा पर अत्यधिक ध्यान देना होगा।


*लेखक:* सन्तोष कुमार

संपादक दैनिक अमन संवाद समाचार पत्र भोपाल

मो. न. 9755618891

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