*लेखक : सन्तोष कुमार*
दिवाली रौशनी और खुशियों का पर्व पूरे भारत को जगमग कर देता है। हर ओर दीये जलते हैं, घर सजते हैं और लोग अपने-अपने तरीके से इस त्योहार का स्वागत करते हैं। लेकिन जब हम इस जगमगाहट के पीछे की सच्चाई को देखते हैं, तो एहसास होता है कि हर घर की दिवाली एक जैसी नहीं होती। कहीं यह त्योहार रौशनी और दिखावे का प्रतीक बन गया है, तो कहीं यह अब भी उम्मीद और सादगी का प्रतीक है।
शहरों की गलियों में दिवाली अब सिर्फ रोशनी का नहीं बल्कि प्रतिस्पर्धा का पर्व बन गई है। अमीर परिवार महीनों पहले से तैयारी में जुट जाते हैं। घरों की दीवारों पर रंग-बिरंगी लाइटें चमकती हैं गाड़ियाँ धोकर सजाई जाती हैं और सोशल मीडिया पर फोटो पोस्ट करने की होड़ लग जाती है। हर घर की सजावट एक-दूसरे से बढ़-चढ़कर करने की चाह में त्योहार का असली भाव कहीं खो सा जाता है।
यह रौशनी बाहर तो फैलती है लेकिन दिलों के भीतर का अंधेरा जस का तस रह जाता है।
उधर उसी शहर के किसी कोने में एक मजदूर अपने छोटे से घर में मिट्टी का एक दीया जलाता है। तेल कम है पर मन में श्रद्धा भरपूर है। बच्चे पुराने कपड़ों में भी खुश हैं क्योंकि त्योहार है, मिठाई भले एक टुकड़ा ही हो, पर वह उनके लिए अमृत के समान है। उस झोपड़ी की वह छोटी-सी लौ शायद हजारों एल ई डी लाइटों से ज़्यादा उजली है, क्योंकि उसमें सच्चाई और आत्मीयता की चमक है।
गाँवों की दिवाली में आज भी मिट्टी की खुशबू और रिश्तों की मिठास घुली रहती है। वहाँ लोग अपने हाथों से दीये बनाते हैं,घरों को गोबर-मिट्टी से लीपते हैं और पूरे मोहल्ले के साथ मिलकर दीप जलाते हैं। वहाँ न कोई ब्रांडेड मिठाई होती है न कोई शोर-शराबा, लेकिन जो अपनापन वहाँ महसूस होता है, वह शहरों की कृत्रिम रौशनी में कहीं खो गया है।
कभी दिवाली का अर्थ घर की सफाई,दिलों की पवित्रता और रिश्तों की गर्माहट हुआ करता था। लोग मिलते थे गले लगते थे, एक-दूसरे के सुख-दुख बाँटते थे। लेकिन आज त्योहार का चेहरा बदल चुका है। अब यह त्यौहार सेल, सेल्फी और सोशल मीडिया की पोस्टों तक सीमित हो गया है। मिठाई की जगह महंगे गिफ्ट्स ने ले ली है और रिश्तों की जगह लाइक्स और फॉलोअर्स ने।
फिर भी इस बदलती दुनिया में कुछ लोग ऐसे हैं जो आज भी दिवाली को बाँटने का त्योहार मानते हैं। वे झुग्गियों में जाकर बच्चों को मिठाई देते हैं। नए कपड़े बाँटते हैं,बुजुर्गों के साथ समय बिताते हैं। उनके लिए असली पूजा लक्ष्मी की नहीं, बल्कि इंसानियत की होती है। यही लोग समाज में वह सच्ची रौशनी फैलाते हैं,जिसकी आज सबसे ज़्यादा जरूरत है।
दिवाली के साथ एक और पहलू जुड़ा है पर्यावरण,जिस तरह से पटाखों का शोर और धुआं बढ़ रहा है,उसने इस पर्व की पवित्रता पर धब्बा लगा दिया है। असली दिवाली तो तब होगी जब धरती भी मुस्कुरा सके,हवा भी साफ़ रहे और जानवरों को डर न लगे। अगर हर इंसान पाँच पटाखे कम फोड़कर पाँच दीये ज़्यादा जलाए तो यह दुनिया सच में उजली हो जाएगी।
दिवाली का असली अर्थ सिर्फ रौशनी नहीं,बल्कि संवेदना और साझेदारी है। जब कोई अमीर परिवार अपने सुख का एक हिस्सा किसी गरीब के साथ बाँटता है,जब कोई बच्चा अपने पुराने खिलौने किसी जरूरतमंद को देता है,जब कोई महिला अपने घर की रसोई से किसी झुग्गी में मिठाई पहुँचाती है,वही दिवाली सबसे सुंदर होती है।
हर इंसान के भीतर एक दीया जलता है। उस दीये की लौ तभी तेज़ होती है,जब उसमें प्रेम, करुणा और बराबरी का तेल डाला जाए। दिवाली हमें यही सिखाती है कि उजाला बाँटने से बढ़ता है। अमीर की बिजली बुझ सकती है,पर गरीब के मन का दीया कभी नहीं।
जिस दिन हम अपने दिलों के अंधेरे को मिटाकर किसी और के जीवन में रोशनी भरेंगे,उस दिन सच में दिवाली होगी ऐसी दिवाली जो न अमीर की होगी, न गरीब की,बल्कि इंसानियत की होगी।
*लेखक :*
सन्तोष कुमार संपादक दैनिक अमन संवाद समाचार पत्र भोपाल (सामाजिक सरोकारों पर लिखने वाले स्वतंत्र पत्रकार)
मो. न. 9755618891


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