Ad Code

Responsive Advertisement

बेनाम मृतकों का सम्मान बनकर खड़ा एक मौन देवदूत : राधेश्याम अग्रवाल

*लेखक : सन्तोष कुमार* 

भोपाल की शांत झीलों और व्यस्त सड़कों के बीच कहीं एक व्यक्ति है जो अपने कदमों से साबित करता है कि मानवता अब भी ज़िंदा है वह व्यक्ति है राधेश्याम अग्रवाल।


जनसंवेदना संस्था का वह मौन प्रहरी जो उन रास्तों पर चलता है जहाँ बहुत से लोग नज़रें फेर लेते हैं जहाँ समाज की संवेदना अक्सर थककर बैठ जाती है और जहाँ किसी बेनाम मृतक की देह खामोशी से यह पूछती है—“क्या मेरी विदाई में कोई अपना होगा?” और उसी खामोशी में राधेश्याम जी अपने हाथों में करुणा की आग लेकर पहुँचते हैं जैसे किसी अनदेखे आदेश पर उन्हें यह दायित्व मिला हो कि दुनिया से भुला दिए गए हर इंसान को सम्मान की अंतिम यात्रा मिलनी चाहिए। वे बदबू, भय, कानूनी झंझट और अनगिनत कठिनाइयों के उस पार केवल एक सत्य देखते हैं कि मौत भले किसी को बेनाम कर दे पर विदाई कभी बिन-सम्मान नहीं होनी चाहिए और इस विचार को अपने भीतर दीपक की लौ की तरह जलाए वे उस कंधे का भार उठाते हैं जो कई बार परिवार भी उठाने में असमर्थ रह जाता है। लेकिन उनका संवेदनात्मक संसार यहीं नहीं रुकता भूख से लड़ते गरीबों के लिए वे रोज़ भोजन लेकर पहुँचते हैं जैसे किसी ईश्वर ने उनकी झोली में दया भरकर उन्हें भेजा हो और जब वे किसी बच्चे को पहला निवाला देते हैं किसी बुजुर्ग की थाली भरते हैं किसी मजदूर को दिन भर की थकान के बाद रोटी थमाते हैं तो उनके हाथों में दिया गया भोजन सिर्फ अनाज नहीं बल्कि यह संदेश होता है कि दुनिया में अभी भी ऐसे लोग हैं जो किसी अनजान की भूख को अपना कर्तव्य मानते हैं। ठंड की रातों में जब शहर की हवा चुभती सुइयों की तरह लगती है तब वे कपड़े और कंबल लिए उन रास्तों पर जाते हैं जहाँ तन नहीं बल्कि आत्मसम्मान काँप रहा होता है और जब कोई फटे कपड़ों में लिपटा इंसान कंबल का स्पर्श महसूस करता है तो वह सिर्फ गर्मी नहीं पाता वह यह विश्वास पाता है कि उसकी गरीबी के बीच भी किसी ने उसकी गरिमा को देखा उसे इंसान के रूप में समझा और सम्मान दिया। जनसंवेदना संस्था का कार्य किसी अभियान से अधिक एक दर्शन है कि हर आँसू के पीछे एक कहानी है,हर भूखे पेट के पीछे एक पीड़ा है और हर बेनाम मृतक के पीछे कभी न कभी धड़कती एक ज़िंदगी रही है और अगर कोई व्यक्ति इन कहानियों, इन दर्दों, इन मौन विदाइयों को अपनी जिम्मेदारी समझ ले तो वह अकेला भी दुनिया में मानवता की नई रोशनी जगा सकता है। राधेश्याम अग्रवाल का जीवन हमें यही सिखाता है कि करुणा किसी बड़े मंच की नहीं छोटे-छोटे सचेत कर्मों की मोहताज होती है कि सेवा की सबसे पवित्र भाषा वही है जिसे बोलने के लिए शब्दों की जरूरत नहीं होती सिर्फ दिल की जरूरत होती है और शायद इंसान होने का सबसे खूबसूरत अर्थ यही है किसी अनजान के दुख में अपना फर्ज तलाश लेना वे सचमुच एक मौन देवदूत की तरह खड़े हैं, जहाँ दुनिया पीछे हट जाती है और जहाँ मानवता आख़िरी सहारा ढूँढती है और उनके इस मौन, विनम्र, पर अद्भुत जीवन-कार्य से यही आवाज़ निकलती है कि जीवन की सारी जटिलताओं के बीच भी करुणा ही सबसे बड़ा साहस है और वही हर बेनाम आत्मा को उसका अंतिम सम्मान देती है।

*इनसेट बॉक्स*

 *भोपाल की भीड़ में अनदेखा सा चलता एक आदमी रोज़ यह साबित कर देता है कि दुनिया अभी भी उतनी कठोर नहीं हुई किसी भूखे के हाथ में रोटी देकर,किसी ठिठुरती रात में कंबल ओढ़ाकर और किसी बेनाम आत्मा को सम्मान की अंतिम विदाई देकर। राधेश्याम अग्रवाल का हर कदम हमें यह एहसास कराता है कि मानवता कोई बड़ी बात नहीं बल्कि वही छोटी-सी करुणा है जिसे जीने का साहस केवल कुछ दिलों में बचा है और उन्हीं दिलों पर आज भी समाज का भरोसा टिका है।*

लेखक सन्तोष कुमार संपादक 

दैनिक अमन संवाद समाचार पत्र भोपाल 

9755618891

Post a Comment

0 Comments

Ad Code

Responsive Advertisement