*लेखक : सन्तोष कुमार*
सालों की दूरी कभी-कभी दर्द को कम नहीं करती बल्कि इतना गहरा बना देती है कि वह हमारे भीतर एक स्थायी सिसकी बनकर बस जाता है। 2–3 दिसंबर 1984 की रात भोपाल ने यही सिसकी सुनी थी एक ऐसी सिसकी जिसे आज भी इस शहर की हवा में महसूस किया जा सकता है। उस रात लोग सपनों में डूबे थे, बच्चे सो रहे थे, मांएं रसोई के बर्तनों के बारे में सोच रही होंगी, पिता अगले दिन की मेहनत का हिसाब लगा रहे होंगे किसी को अंदाज़ा भी नहीं था कि कुछ ही क्षणों में यह सारी ज़िंदगी ज़हरीली हवा में खो जाएगी। यूनियन कार्बाइड के प्लांट से रिसती हुई मिथाइल आइसोसाइनेट गैस ने पहले आंखों में जलन पैदा की, फिर सांसों को भारी किया और फिर धीरे-धीरे हज़ारों लोगों की धड़कनों को रोक दिया। लोग भागना चाहते थे लेकिन पैरों ने साथ नहीं दिया। मांएं अपने बच्चों को उठाकर भागीं लेकिन धुएं ने उनके कदम डगमगा दिए। कुछ बच्चे अपनी मां की गोद में ही सोते-सोते चले गए मानो उन्हें जगाने का कोई हक बचा ही नहीं था। सड़कों पर गिरते लोग, घरों के दरवाज़ों पर जमी लाशें और अस्पतालों में अपने प्रियजनों को ढूंढते टूट चुके चेहरे इन छवियों ने उस रात को सिर्फ त्रासदी नहीं रहने दिया उसे मानव इतिहास के सबसे गहरे जख्म में बदल दिया। लेकिन असली दर्द यह था कि मौत ने सिर्फ वहीं रोक लगाई जहाँ सांसें थम गईं। जो बच गए वे एक नए संघर्ष की शुरुआत के साथ बचे। फेफड़ों की जलन, आंखों का धुंधलापन, शरीर में फैलते रोग और दिल में सदमे की वो लकीरें इन सबने हर दिन को एक नई परीक्षा बना दिया। कई बच्चों ने जन्म लेते ही महसूस किया कि दुनिया उनके लिए भी आसान नहीं होगी।
दूषित पानी, खराब मिट्टी और ज़हरीले रसायनों ने आने वाली पीढ़ियों को भी उस रात का अनचाहा वारिस बना दिया। यह त्रासदी सिर्फ भोपाल की नहीं थी यह सवाल थी कि क्या इंसान की ज़िंदगी इतनी सस्ती है? क्या सुरक्षा कागज़ों पर टिक करने भर से पूरी हो जाती है? क्या निगरानी की नींद इतनी गहरी हो सकती है कि एक पूरा शहर मौत की गोद में समा जाए? वह रात प्रशासन, उद्योग और सिस्टम की सामूहिक विफलता का प्रमाण थी एक ऐसा प्रमाण जिसे मिटा देना एक और अपराध होगा। और इन सबके बीच सबसे बड़ा दर्द उन पीड़ित परिवारों का है जिनके लिए न्याय आज भी एक लंबा थका देने वाला इंतज़ार बना हुआ है। कई लोग उम्र के आखिरी पड़ाव में पहुंच चुके हैं पर उम्मीद अभी भी दिल के किसी कोने में धड़कती है कि शायद कभी उन्हें पूरा न्याय मिल सके। भोपाल हमें यह बताता है कि त्रासदी सिर्फ दुर्घटनाओं से नहीं होती बल्कि उन चूकों से होती है जिन्हें अनदेखा किया गया हो। आज जब हम तेजी से आगे बढ़ रहे राष्ट्र होने का दावा करते हैं तो हमें यह याद रखना होगा कि प्रगति का असली अर्थ मानव जीवन की सुरक्षा है। भोपाल का दर्द हमें सिखाता है कि मशीनें बड़ी हो सकती हैं उद्योग विशाल हो सकते हैं लेकिन एक इंसान की सांस सबसे अनमोल होती है। जो शहर उस रात टूटा था वह आज भी कह रहा है—
दूषित पानी, खराब मिट्टी और ज़हरीले रसायनों ने आने वाली पीढ़ियों को भी उस रात का अनचाहा वारिस बना दिया। यह त्रासदी सिर्फ भोपाल की नहीं थी यह सवाल थी कि क्या इंसान की ज़िंदगी इतनी सस्ती है? क्या सुरक्षा कागज़ों पर टिक करने भर से पूरी हो जाती है? क्या निगरानी की नींद इतनी गहरी हो सकती है कि एक पूरा शहर मौत की गोद में समा जाए? वह रात प्रशासन, उद्योग और सिस्टम की सामूहिक विफलता का प्रमाण थी एक ऐसा प्रमाण जिसे मिटा देना एक और अपराध होगा। और इन सबके बीच सबसे बड़ा दर्द उन पीड़ित परिवारों का है जिनके लिए न्याय आज भी एक लंबा थका देने वाला इंतज़ार बना हुआ है। कई लोग उम्र के आखिरी पड़ाव में पहुंच चुके हैं पर उम्मीद अभी भी दिल के किसी कोने में धड़कती है कि शायद कभी उन्हें पूरा न्याय मिल सके। भोपाल हमें यह बताता है कि त्रासदी सिर्फ दुर्घटनाओं से नहीं होती बल्कि उन चूकों से होती है जिन्हें अनदेखा किया गया हो। आज जब हम तेजी से आगे बढ़ रहे राष्ट्र होने का दावा करते हैं तो हमें यह याद रखना होगा कि प्रगति का असली अर्थ मानव जीवन की सुरक्षा है। भोपाल का दर्द हमें सिखाता है कि मशीनें बड़ी हो सकती हैं उद्योग विशाल हो सकते हैं लेकिन एक इंसान की सांस सबसे अनमोल होती है। जो शहर उस रात टूटा था वह आज भी कह रहा है—
“मुझे मत भूलो मेरे दर्द को याद रखो ताकि किसी और के जीवन में ऐसी रात कभी न उतरे।”
*इनसेट बॉक्स*
*भोपाल की उस रात को याद कर आज भी आंखें नम हो जाती हैं क्योंकि वो सिर्फ एक हादसा नहीं था वह हजारों सपनों का एक साथ टूट जाना था। मांएं अपने बच्चों को सीने से चिपटाए दौड़ रही थीं पर हवा उनसे पहले उनके बच्चों की सांसें छीन चुकी थी कई पिता अपने पूरे परिवार को कंधों पर उठाए रोते हुए अस्पताल पहुँचे लेकिन वहां सिर्फ सफ़ेद चादरों में लिपटी खामोशियां मिलीं। उस रात किसी ने अपनी बेटी की हंसी खो दी किसी ने अपने बेटे का भविष्य और किसी ने अपनी दुनिया का आखिरी सहारा। भोपाल सिर्फ मरा नहीं था वह चीखा था और उसकी चीखें आज भी समय के सीने पर गूंजती हैं।*

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