Ad Code

Responsive Advertisement

न्याय की प्रक्रिया गरीब के लिए सजा जैसी : जब न्याय बोझ बन जाए और भरोसा टूटने लगे

*लेखक : सन्तोष कुमार* 

कानून के प्रति विश्वास किसी भी लोकतांत्रिक समाज की मूल शर्त है। भारतीय संविधान ने प्रत्येक नागरिक को समान न्याय का अधिकार दिया है किंतु व्यवहार में यह समानता अब भी अधूरी दिखाई देती है। न्याय की प्रक्रिया आज उस वर्ग के लिए सबसे अधिक बोझिल बन गई है जिसके पास साधन सबसे कम हैं। अदालतों की लंबी प्रक्रिया, बढ़ती कानूनी लागत और अंतहीन प्रतीक्षा ने न्याय को गरीब के लिए एक कठिन संघर्ष में बदल दिया है।


न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। एक-एक मामले का वर्षों तक खिंच जाना केवल प्रशासनिक समस्या नहीं बल्कि सामाजिक अन्याय का रूप ले चुका है। गरीब नागरिक के लिए हर तारीख़ एक नई आर्थिक और मानसिक चुनौती बन जाती है। इसके विपरीत संसाधन-संपन्न वर्ग महंगे अधिवक्ताओं प्रभाव और कानूनी जटिलताओं के सहारे अपेक्षाकृत सुरक्षित रास्ते तलाश लेता है। यह असमानता कानून के समक्ष समानता के सिद्धांत को कमजोर करती है और आम आदमी के भरोसे को गहरी चोट पहुँचाती है।

इस स्थिति के लिए केवल प्रणालीगत कमियों को दोषी ठहराना पर्याप्त नहीं होगा। समस्या तब और गंभीर हो जाती है जब व्यवस्था के भीतर बैठे कुछ लोग अपने पद और अधिकारों का उपयोग सार्वजनिक हित के बजाय निजी लाभ के लिए करने लगते हैं। न्याय व्यवस्था में मौजूद भ्रष्टाचार चाहे सीमित स्तर पर ही क्यों न हो उसकी विश्वसनीयता को गंभीर रूप से प्रभावित करता है। न्याय केवल निष्पक्ष होना ही नहीं चाहिए बल्कि उसका निष्पक्ष दिखना भी उतना ही आवश्यक है। अक्सर यह मान लिया जाता है कि व्यवस्था में सुधार का रास्ता केवल राजनीति से होकर जाता है। यह दृष्टिकोण अधूरा है। लोकतंत्र की मजबूती उसके सभी स्तंभों प्रशासन, न्यायपालिका, मीडिया और नागरिक समाज की सामूहिक जिम्मेदारी पर निर्भर करती है। किसी एक क्षेत्र से ही बदलाव की उम्मीद करना न तो व्यावहारिक है और न ही टिकाऊ।

आज ज़रूरत इस बात की है कि ईमानदार और सक्षम लोग अपने-अपने क्षेत्रों में आगे आएँ और सक्रिय भूमिका निभाएँ। प्रशासनिक सेवाओं से लेकर न्यायिक तंत्र तक शिक्षा से लेकर सार्वजनिक विमर्श तक जहाँ भी निर्णय और प्रभाव की भूमिका है वहाँ नैतिकता और दक्षता का होना अनिवार्य है। केवल सत्ता के केंद्रों तक पहुँचना ही परिवर्तन का पर्याय नहीं हो सकता।

लोकतंत्र में नागरिक की भूमिका केवल मतदाता तक सीमित नहीं होती। चुप्पी कई बार सहमति का रूप ले लेती है। अन्याय के सामने निष्क्रिय रहना अनजाने में ही उसे स्वीकार करना है। सवाल पूछना जवाबदेही तय करना और सही के पक्ष में खड़ा होना यही सक्रिय नागरिकता की पहचान है।

न्याय किसी एक फैसले का नाम नहीं बल्कि वह भरोसा है जिस पर लोकतांत्रिक व्यवस्था टिकी होती है। यदि यह भरोसा कमजोर पड़ता है तो संविधान की सबसे सशक्त पंक्तियाँ भी अपना प्रभाव खोने लगती हैं। ऐसे समय में ज़रूरत है व्यापक आत्ममंथन की व्यवस्था से पहले स्वयं से सवाल पूछने की। न्याय तभी बचेगा जब उसे बचाने की जिम्मेदारी हर नागरिक अपने कंधों पर लेने को तैयार होगा।

*इनसेट बॉक्स* 

जब न्याय की प्रक्रिया गरीब के लिए सज़ा और अमीर के लिए सुविधा बन जाए तब यह केवल कानूनी संकट नहीं रह जाता बल्कि लोकतंत्र के नैतिक आधार पर सीधा आघात होता है।

लेखक 

सन्तोष कुमार संपादक दैनिक अमन संवाद 

समाचार पत्र भोपाल 

9755618891

Post a Comment

0 Comments

Ad Code

Responsive Advertisement