*विशेष लेख*
लेखक: सन्तोष कुमार
जब कोई गरीब माँ अपने बीमार बच्चे को गोद में उठाए सरकारी अस्पताल के गेट पर पहुँचती है, तो वह किसी योजना का नाम नहीं जानती उसे बस भरोसा होता है कि सरकार उसका साथ देगी। लेकिन जब दवा स्टॉक खत्म मिलती है डॉक्टर छुट्टी पर होता है और मशीनें बंद पड़ी होती हैं, तब उसकी उम्मीदें वहीं दम तोड़ देती हैं। विकास की रोशनी में नहाए इस प्रदेश के अस्पतालों की दीवारें आज भी दर्द का बोझ ढो रही हैं।
मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव जी, आपने प्रदेश के हर क्षेत्र में नई ऊर्जा भरी है शिक्षा, संस्कृति, प्रशासन, हर जगह सुधार की लहर चली है मगर स्वास्थ्य का यह मोर्चा अब भी किसी अनदेखे अंधेरे में है। आयुष्मान कार्ड बनवाना निश्चित ही एक सराहनीय कदम है पर जब अस्पताल में इलाज ही नहीं मिलता तो वह कार्ड केवल कागज़ रह जाता है जीवन की गारंटी नहीं। जनता को अब कार्ड नहीं, संवेदना और संसाधन चाहिए ताकि इलाज केवल नाम का अधिकार नहीं, बल्कि हर नागरिक का वास्तविक अनुभव बन सके।
राज्य के सरकारी अस्पतालों की सच्चाई कागज़ों में नहीं मरीजों की आँखों में दिखाई देती है। वहाँ कोई मंत्री नहीं आता, कोई रिबन नहीं कटता। वहाँ बस पीड़ा होती है टूटी स्ट्रेचरें, पुरानी मशीनें, नदारद डॉक्टर और थकी हुई नर्सें। कई बार लगता है कि यहाँ बीमारी से ज़्यादा लड़ाई व्यवस्था से करनी पड़ती है। और इस लड़ाई में अक्सर गरीब हार जाता है क्योंकि उसके पास “सिफारिश” नहीं होती बस एक आयुष्मान कार्ड होता है जिसे वह गर्व से दिखाता है पर जिसे देखकर कई अस्पताल मुंह फेर लेते हैं।
*सरकार ने आयुष्मान भारत योजना के तहत लाखों लोगों को मुफ्त इलाज की सुविधा दी पर जमीनी सच्चाई यह है कि इस योजना के नाम पर कई प्राइवेट अस्पतालों ने गरीबों से लूट का धंधा शुरू कर दिया है।*
इलाज के बिल बढ़ा-चढ़ाकर दिखाए जाते हैं, मरीजों को अनावश्यक जांचों में उलझाया जाता है, और कभी-कभी अस्पताल “आयुष्मान कार्ड मान्य नहीं है” कहकर मना भी कर देते हैं। गरीब मजबूर होकर कर्ज में डूब जाता है या फिर अधूरा इलाज लेकर लौट जाता है। कुछ निजी अस्पताल तो योजना के तहत राशि वसूल कर भी मरीज को पूरी सुविधा नहीं देते। यह सब उस व्यवस्था की साख पर सवाल खड़ा करता है जो “स्वास्थ्य सबका अधिकार” कहती है।
*इनसेट बॉक्स*
*मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव जी, जनता ने आपको हमेशा कर्मठ और संवेदनशील नेता के रूप में देखा है। आपकी कार्यशैली में जनभावना की झलक साफ दिखती है। इसलिए जनता उम्मीद करती है कि अब आप स्वास्थ्य क्षेत्र में भी उसी गंभीरता से हस्तक्षेप करें जैसे आपने शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में किया है। क्योंकि सरकारी अस्पतालों में भरोसा लौटाना और निजी अस्पतालों की लूट पर अंकुश लगाना दोनों ही आपकी सरकार के संवेदनशील नेतृत्व की पहचान बन सकते हैं।*
सिर्फ आयुष्मान कार्ड बनाकर देने से स्वास्थ्य सुरक्षा पूरी नहीं होती। ज़रूरत है कि सरकारी अस्पतालों को संसाधनों से भरपूर बनाया जाए, डॉक्टरों की संख्या बढ़ाई जाए, नर्सिंग स्टाफ को सम्मान और प्रशिक्षण मिले, और दवाइयाँ हर ज़रूरतमंद तक बिना रुकावट पहुँचें। जब अस्पतालों में मशीनें चलेंगी, जांचें होंगी, दवाइयाँ मिलेंगी तब आयुष्मान कार्ड सच में “जीवन रक्षक कार्ड” बनेगा। आज वह केवल एक पहचान है, जबकि होना उसे उम्मीद की पहचान चाहिए।
यदि मुख्यमंत्री कभी बिना सूचना किसी जिला अस्पताल या सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में जाएँ, तो उन्हें पता चलेगा कि वहाँ जनता किस हाल में है। एक माँ जो अपने बच्चे को बुखार में झुलसते देख रही है, एक वृद्ध जो जांच रिपोर्ट के इंतज़ार में घंटों बैठा है, एक गरीब जो डॉक्टर के आने की आस लगाए है ये सभी आंकड़ों से परे उस सच्चाई के प्रतीक हैं जो किसी भी फाइल में दर्ज नहीं। विकास के आँकड़े बहुत हैं लेकिन मानवता के पैमाने पर यह तस्वीर अब भी अधूरी है।
अस्पताल केवल ईंट-पत्थर की इमारतें नहीं होते वे सरकार की संवेदना का आईना होते हैं। जब वहाँ दवा और डॉक्टर की जगह उदासी और इंतज़ार मिलता है, तो जनता का विश्वास टूटता है। और जब विश्वास टूटता है तो विकास के सारे प्रयास भी अधूरे लगते हैं। मुख्यमंत्री जी अब समय है कि स्वास्थ्य को “प्राथमिकता” नहीं बल्कि “संवेदनशील मिशन” बनाया जाए। सरकारी अस्पतालों में मानवीयता लौटे, निजी अस्पतालों पर सख्त निगरानी हो और आयुष्मान योजना का असली लाभ केवल कागज़ों में नहीं लोगों की ज़िंदगी में दिखे।
विकास की परिभाषा सड़कों, पुलों और भवनों से आगे बढ़नी चाहिए। विकास तब सच्चा कहलाएगा जब हर गरीब नागरिक को यह भरोसा हो कि अगर वह बीमार पड़ा, तो सरकार उसके साथ खड़ी है बिना अपमान, बिना रिश्वत और बिना इंतज़ार। मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव जी यह राज्य आपकी नई सोच और संवेदना से उम्मीद लगाए बैठा है। जनता का विश्वास तभी पूर्ण होगा जब सरकारी अस्पतालों की दीवारों में भी वही गर्मजोशी लौटे जो आपने शासन में दिखाई है।
कभी-कभी नीतियाँ नहीं नज़र बदलने की ज़रूरत होती है। और अगर यह नज़र सरकारी अस्पतालों और स्वास्थ्य व्यवस्था की ओर मुड़ी तो न केवल प्रदेश की चिकित्सा व्यवस्था बदलेगी, बल्कि शासन का चेहरा भी और अधिक मानवीय दिखाई देगा। क्योंकि अंततः किसी सरकार की असली ताकत उसकी संवेदनशीलता होती है और किसी समाज की पहचान इस बात से होती है कि वह अपने बीमार, गरीब और असहाय नागरिकों का कितना साथ देता है।
*कागज़ के कार्ड से नहीं, संवेदना से ही ज़िंदगियाँ बचेंगी*
*लेखक*
सन्तोष कुमार
वरिष्ठ पत्रकार भोपाल
मो.न. 9755618891

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